विशालगढ़ का किला, मसूद की फौज और शिवाजी के पराक्रम के किस्से

करीब 1000 से साल पुराना विशालगढ़ किला छत्रपति शिवाजी महाराज के वीरतापूर्ण जीवन का एक अहम हिस्सा है. यह कोल्हापुर से 76 किमी उत्तर पश्चिम में स्थित है. यह किला सह्याद्री पहाड़ियों और कोंकण की सीमा पर अंबा घाट और अनुष्का घाट को अलग करने वाली पहाड़ी पर स्थित है. कोल्हापुर जिले के शाहूवाड़ी तहसील में स्थित विशालगढ़ किले को स्थानीय लोग ‘खेलना’ भी कहते हैं.

विशालगढ़ नाम का अर्थ है भव्य या विशाल किला…
विशालगढ़…विशाल और ऐतिहासिक इसलिए भी है, क्योंकि 1660 में यह छत्रपति शिवाजी महाराज की शरणस्थली रहा. किले में कई ऐतिहासिक घटनाएं घटी हैं. यह किला मराठा सरदार बाजी प्रभु और बीजापुर सल्तनत के सिद्दी मसूद के बीच लड़ी गई लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है, जब राजा शिवाजी सुरक्षित रूप से खड़ी ढलानों और घने जंगल से होते हुए किले तक पहुंचे थे. विशालगढ़ नाम का अर्थ है भव्य या विशाल किला. शिवाजी ने 1659 में इस किले पर विजय प्राप्त करने के बाद इसे यह नाम दिया था.

किसने करवाया था किले का निर्माण?
जानकारी के अनुसार विशालगढ़ किले का निर्माण 1058 में शिलाहार राजवंश द्वारा किया गया था और इसे शुरू में खिलगिल किले के नाम से भी जाना जाता था. यह आदिलशाह, राजा शिवाजी, राजा संभाजी, मुगल सरदारों और फिर अंग्रेजों जैसे कई शासकों के हाथों में चला गया. हजरत सैयद मलिक रेहान मीरा साहब की एक प्रसिद्ध दरगाह, जिसे देखने हजारों पर्यटक आते हैं, किले में स्थित है.

जब दुश्मनों को शिवाजी ने दे दिया चकमा
पवनखिंड वह जगह है, जहां हजारों मराठा सैनिकों ने अपने राजा को दक्कन की सेना से बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. पवनखिंड की लड़ाई 13 जुलाई, 1660 को हुई थी, जब शिवाजी घेराबंदी से बच निकले, तो सिद्दी मसूद को पता चला कि शिवाजी विशालगढ़ की ओर जा रहे हैं. उन्होंने मराठा सैनिकों के पीछे अपनी सेना भेज दी. शिवाजी के एक वफादार सैनिक बाजी प्रभु ने घोड़ खिंड में 300 सैनिकों के साथ रुकने का फैसला किया और सिद्दी मसूद की सेना को तब तक रोके रखा जब तक शिवाजी विशालगढ़ किले तक नहीं पहुंच गए.

जब शिवाजी को रोक नहीं पाए सिद्दी मसूद 
यह कहानी शुरू होती है वर्ष 1489 से, जब बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह ने पन्हाला दुर्ग को अपने नियंत्रण में ले लिया. ऐसी जानकारी है कि आदिल शाही का नियंत्रण इस किले पर बहुत समय तक था. लेकिन वर्ष 1659 में मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग पर अपनी जीत की पताका लहरा दिया.

फिर 1660 में अली आदिल शाह द्वितीय ने इस किले को वापस पाने के लिए सिद्दी मसूद ने जौहर के नेतृत्व में अपनी सेना भेजी और यहां  5 महीने तक युद्ध हुआ. पन्हाला दुर्ग को अली आदिल शाह द्वितीय की सेना ने चारों ओर से घेर लिया था. वक्त की जरूरत को देखते हुए छत्रपति शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को छोड़ना ही उचित समझा. पन्हाला दुर्ग से छत्रपति शिवाजी विशालगढ़ दुर्ग की ओर बढ़ चले.

Latest and Breaking News on NDTV

सेनानायक बाजी प्रभु देशपांडे  और 300 सैनिकों को लेकर शिवाजी विशालगढ़ किले की ओर निकल गए. लेकिन जब आदिलशाही के सेनानायक सिद्दी जौहर इस बात का पता चाला तो उसने करीब 15000 सैनिकों की टुकड़ी लेकर उनका पीछा किया. पन्हाला दुर्ग से विशालगढ़ किला करीब 60 किलोमीटर दूर है. यहां शिवाजी के आने से पहले आदिलशाह की सेना यहां आ पहुंची. यहां खिंडी नाम के खाई के पास मराठा सेनानायक बाजी प्रभु देशपांडे ने आदिलशाही सेना को रोकने का फैसला किया. छत्रपति शिवाजी से विशालगढ़ किला में जाने का निवेदन किया. बाजी प्रभु देशपांडे का साथ दिया.

कहानी बाजी प्रभु देशपांडे की वीरता की…
शिवा काशिद जो देखने में छत्रपति शिवाजी की तरह लगते थे. उनके कारण आदिलशाह की सेना को यह पाता ही नहीं चला कि शिवाजी किला की ओर निकल चुके हैं. बाजी प्रभु देशपांडे ने 300 मराठा सैनिकों के साथ आदिलशाही की विशाल सेना से जमकर लोहा लिया औह हुआ ये कि  सिद्दी जौहर और उसकी विशाल सेना को खिंडी की खाई के पास ही रोक लिया गया.

जब नई युद्ध रणनीति से सफल हुए थे शिवाजी
छत्रपति शिवाजी विशालगढ़ दुर्ग पहुंच गए. वहां पहुंचते ही उन्हें तोपों की अवाज सुनाई दी. दरअसल, गोलों की आवाज से खिंडी के खाई में लड़ रहे मराठा सेना को संकेत दिया गया. इस भयंकर युद्ध में अपनी वीरता का परिचय देते हुए बाजी प्रभु देशपांडे और 300 मराठा सैनिकों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया.

छत्रपति शिवाजीने बाजी प्रभु देशपांडे और 300 मराठा सैनिकों की सम्मान में खिंडी खाई का नाम पावनखिंड रख दिया. शिवाजी महाराज ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की. उन्होंने अपने सैनिकों को एक नई युद्ध रणनीति में प्रशिक्षित किया, जिसमें वे जंगलों और पहाड़ों के माध्यम से छिपकर चलते और दुश्मन को पीछे से हमला करते थे. इस रणनीति ने उन्हें मुगल सेना पर एक निर्णायक जीत हासिल करने में मदद मिली और पावनखिंड के युद्ध (के नाम से इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज़ हो गया.