मणिपुर हिंसा में खोया आशियाना, फिर भी नहीं हारी हिम्मत; अब राहत शिविर में सम्मान से कमा रहीं ‘रोटी’

शिविर में रहने वाले परिवारों के बच्चे हर सुबह क्लासेज में जाकर दूसरे छात्रों के साथ पढ़ाई करते हैं. शिविरों में रहने वाले विस्थापित लोग छोटे-मोटे काम करने के लिए बाहर निकल जाते हैं, ताकि वह अपने लिए पैसा कमा सकें. इनमें कई लोग दर्जी, बढ़ई और प्लंबर का काम कर रहे हैं. अब यहां रह रहे लोगों का दिन किस तरह से गुजरता है और ये लोग आजीविका के लिए क्या करते हैं, सुनिए उनकी जुबानी.

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राहत शिविर में काम कर रही महिलाएं

हालांकि, सात महिलाओं को शिविर में ही काम मिल गया, इसलिए उनको बाहर नहीं जाना पड़ रहा है. उनका कहना है कि भले ही इस काम में उनको पैसा ज्यादा नहीं मिलता लेकिन कमरे में बैठकर भविष्य की चिंता करने की तुलना में यह ज्यादा अच्छा है, इस परिस्थिति में उनके लिए यह काम बहुत ही अच्छा है.

67 साल की हेमावती निंगथौजाम ने एनडीटीवी को बताया, “हम 50 पैसे प्रति पीस के हिसाब से सुपारी को चबाने योग्य आकार में तोड़ते हैं, हमें पिछले एक हफ्ते से हर दिन 300 टुकड़े मिल रहे हैं.” हेमावती अन्य पांच अन्य महिलाओं के साथ स्कूल के प्ले ग्राउंड के बीच में चटाई पर बैठकर सुपारी तोड़ती हुई नजर आईं. वहीं बच्चे क्लास से प्ले ग्राउंड में पहुंच गए.  सुगनू की रहने वाली हेमावती ने बताया,  “हम हर दिन 150 रुपये कमाते हैं, जिसे हम छह लोगों के बीच बांट लेते हैं. यहां पूरे दिन खाली बैठना बहुत बुरा लगता है, इसीलिए यह काम कर रहे हैं.”

उन्होंने कहा, ” हमारे घरों में लूटपाट होने और आग लगने के बाद पिछले साल मई में 5 लोग यहां आए थे. लोगों मे घर में गैस सिलेंडर से पाइप हटाकर वहीं छोड़ दिया था, जिसकी वजह से विस्फोट हो गया.” हेमावती ने बताया कि उनके पति एक दर्जी हैं और उन्हें इंफाल शहर में काम मिल गया है. लेकिन ये सभी अपने घर सुगनू वापस लौटना चाहते हैं. उन्होंने बताया कि शिविर में अधिकारी उनकी बहुत मदद करते हैं, इसी वजह से वह अपने घरों को खोने का दर्द सहन कर पा रहे हैं.

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शिविर में रहने वाली सातवीं महिला, 74 साल की विजयलक्ष्मी ओइनम, स्कूल के प्ले ग्राउंड में अकेली बैठी 300 सुपारी काट रही थी. उन्होंने बताया कि, मैं भी सुगनू से हूं. जब उनसे कल रात सुगनू में बम विस्फोट के बारे में पूछा गया तो ओइनम ने बताया कि उनका बेटा शिविर में नहीं आना चाहता.  वह अभी भी सुगनू में है और शहर की रखवाली कर रहा है. वह मरने से नहीं डरता, लेकिन वह किसी राहत शिविर में नहीं रहेगा.”

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बता दें कि राहत शिविर में रहने वाले लोगों के खाने से लेकर  रोजमर्रा के खर्च के लिए राज्य सरकार से मदद मिलती है. शिविर का प्रबंधन देखने वाले तीन व्यक्ति राहत शिविर की देखभाल कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने अपने प्रशासनिक कौशल को स्वयंसेवी कार्यों में ढाल लिया है. उन्होंने बताया कि सड़क दुर्घटना का शिकार हुए एक विस्थापित शख्स के इलाज पर 15,000 रुपए खर्च किए गए.उन्होंने बताया कि उनके पास जलाऊ लकड़ी खरीदने के लिए पैसे तक खत्म हो गए क्योंकि दवाओं पर यह पैसा खर्च हो गया. इस तरह की चुनौतियों के बीच यहां रहने वाले लोग अपना जीवन बिता रहे हैं.

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